बचपन में एक चुटकुला सुना था। एक गाँव में जब भी कोई बूढा गुज़र जाता था, तो गाँव के स्कूल में एक दिन की छुट्टी कर दी जाती थी। एक बार दो दोस्त सुबह सुबह स्कूल जा रहे थे, तो एक गली में दो बूढे ताश खेल रहे थे। एक दोस्त बोलता है, "देख मोहन, अपनी दो छुट्टियाँ पत्ते खेल रही हैं।"
अचानक ये चुटकुला क्यों याद आया?
रविवार को मैं सब्जी लेने गया, तो रस्ते में ऐसा ही कुछ देखा। एक प्राईमरी स्कूल के बाहर दो बच्चे बात कर रहे थे। अचानक कुछ सूअर वहां से गुज़रे। एक गिनती करने लगा। और फिर दुसरे को कहता है, "ओये देख, ८-८ स्वाइन फ्लू ! अपनी एक महीने की छुट्टी होने वाली है।" उसके चेहरे पर वैसी ही स्माइल थी जैसी की दर्शील सफारी की थी जब वो "३ X ९ = ३" लिख कर खुश होता है। जो भी है, नादान बच्चे, अपनी ही दुनिया है। पर ये तो अच्छा है की इनको ये पता है की ये स्वाइन फ्लू शुरू कैसे हुआ? पुणे की यही बात ख़ास है - यहाँ के लोग (बच्चे भी) बहुत जागरूक हैं। पर बच्चों कि बात सुन कर, सूअरों ने भी आपस में बात कि होगी - "देखो बच्चों को भी पता चल गया। ये सब साला मेक्सिको के सूअरों ने किया, और इल्जाम हम पर लग रहा है। अब भैया गेहूं के साथ घुन तो पिसेगा ही !"
माहौल अचानक बदल सा गया है।
लोग मास्क पहन कर घूम रहे हैं।
कॉलेज के छात्र ऐसी बातें करते हुए मिल जायेंगे - "अगर फलां टीचर ने मुझे इस बार अच्छे नंबर नहीं दिए तो उसके मुंह पर जा कर छींक दूंगा।"
छात्र अपने मास्टरों के मुंह पर छींकना चाहते हैं, सॉफ्टवेर इंजिनेयर अपने मैनेजर के मुंह पर और मैनेजर लोग शायद अपने मैनेजरों के मुंह पर।" इस बार अगर अप्रैज़ल अच्छा नहीं किया, तो मैनेजर जी गए।"
लोगों में छीन्कासुर प्रवृति (भस्मासुर से प्रेरित) आ गयी है। दुश्मनी निकालने का अच्छा तरीका है।
मास्क जो कि सिर्फ डॉक्टर लोग पहनते थे, वो भी सिर्फ ऑपरेशन करते समय, अब हर कोई पहन रहा है।
लड़कियां अपने सूट से मैचिंग कलर के मास्क खरीद रही हैं। अब सूट से मैचिंग लिपस्टिक तो नहीं दिखेगी, मास्क ही सही।
पहले गर्लफ्रेंड-ब्वॉयफ्रेंड मोटर बाइक पर ऐसे बैठते थे कि बस क्या बताएं (दो के बैठने के लिए पर्याप्त जगह होती है, पर न पीछे वाली सीट फिर भी खाली, दोनों के बैठने के बावजूद), अब थोडी सामाजिक स्वीकार्य दूरी बना कर रखते हैं। (Now, Love is not in the air, Swine Flu is in the air...)
सब एक दुसरे को "स्वाइन फ्लू" भरी नज़रों से देख रहे हैं। इंसान इंसान से डर रहा है। पहले भी डरता था, पर पहले सिर्फ आतंकवादियों या ससुराल वालों से डरता था, अब हर तीसरे इंसान से डर लगता है।
लोग जप रहे हैं कि हे भगवान् इससे बचा ले, बस कुछ दिन और, फिर तो २-३ महीने में अपने होनहार डॉक्टर लोग इसकी दवा बना ही लेंगे।
अगर थोडी देर के लिए इंसान भूल भी जाये कि ऐसा कुछ हवा में चल रहा है, तो हर १०-१५ मिनट में एक मेल आ जाती है कि भैया इतने इत्मिनान से काहे बैठे हो, थोडा डर बनाये रखो चेहरे पर - जाके हाथ धो कर आओ, खबरदार! अपने आँख-नाक को हाथ मत लगाओ, खुजली करनी है तो हाथ से नहीं, बाजू से करो।
पर सब बीमारी का एक घूम-फिर कर एक ही इलाज दिखाई दे रहा है - अच्छा भोजन और अच्छी सेहत। जहाँ भी पढता हूँ, प्रोटीन खाओ, बी-१२ खाओ, खूब पानी पीओ, व्यायाम करो। एक्स्ट्रा ये है, कि सफाई बरतो, सार्वजनिक स्थलों पर कम से कम जाओ, ट्रैवेल कम करो।
After all, "Precaution is better than cure..." बचाव में ही सुरक्षा है। बाकी ये किसे पता है कि कब चाँद कि तरफ पैर हो जायें? मैं भी बस यही मना रहा हूँ कि सही सलामत बंगलोर पहुँच जाऊँ फिर आगे वहां से लिखूंगा। पर ये भी कहाँ लिखा है कि बंगलोर बचा रहेगा। बंगलोर वाले मुझे बोल रहे हैं कि हम तुझे यहाँ घुसने ही नहीं देंगे। :(
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